अमर्त्य सेन का दर्शन | जीवन परिचय | - Rajasthan Result

अमर्त्य सेन का दर्शन | जीवन परिचय |

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अमर्त्य सेन (जन्म 1933) का जन्म शान्ति निकेतन, पश्चिम बंगाल में हुआ था। सेन पूर्वी बंगाल के वर्तमान में बांगलादेश – के एक विख्यात शैक्षिक परिवार से हैं। उनके नाना क्षितिमोहन सेन मध्यकालीन भारतीय साहित्य के एक विख्यात विद्वान, हिन्दूवादी दर्शन के अधिकारी थे।

वे शांति निकेतन में रवीन्द्रनाथ के निकट सहयोगी थे। सेन के पिता आशुतोश सेन और माता अमिता सेन थीं। सेन ने अपनी हाई स्कूल की शिक्षा 1941 में ढांका, वर्तमान बांगलादेश में सेंट ग्रेगरीन स्कूल में प्रारंभ की थी। 1947 में विभाजन में उनका परिवार भारत प्रस्थान कर गया।

अमर्त्य सेन ने पहले भारत में विश्व भारती विश्वविद्यालय में और कोलकाता के प्रसीडेंसी कॉलेज में अध्ययन किया और फिर कैम्ब्रिज के ट्रिनिटी कॉलेज चले गये, जहां उन्होंने 1956 में प्रथम श्रेणी बी.ए. (आनर्स) उत्तीर्ण किया और फिर 1959 में पी.एच.डी. सम्पन्न की ।

अमर्त्य सेन का दर्शन

23 वर्ष की उम्र में अमर्त्य सेन जाधवपुर विश्वविद्यालय, कलकत्ता के अर्थशास्त्र विभाग में प्रोफेसर और विभागाध्यक्ष बन गये थे। जाधवपुर विश्वविद्यालय में अपनी पदावधि के दौरान उन्हें महान् आर्थिक विधिशास्त्री ए. के. दासगुप्ता के साथ रहने का सौभाग्य प्राप्त हुआ

जो उस समय उनके निरीक्षक के रूप में बनारस हिन्दू विश्वविद्यालय में पढ़ा रहे थे। आगे चलकर, सेन ने ट्रिनिटी कॉलेज में एक पारितोषिक अधिछात्रवृत्ति जीती, जिसने उन्हें उनके पसंद का कुछ भी करने की चार सालों की स्वतंत्रता दी

जिसके दौरान उन्होंने दर्शन शास्त्र को पढ़ने का दृढ़ निश्चय किया । यह उनके आगे के शोध में अत्यधिक सहायक हुआ। सेन ने दर्शनशास्त्र पढ़ने की महत्ता को इस प्रकार संबंधित किया : “अपने अध्ययन को दर्शनशास्त्र तक व्यापक बनाना मेरे लिए बहुत महत्वपूर्ण था, मात्र इसलिए नहीं कि अर्थशास्त्र में मेरी रूचि के कुछ क्षेत्रों का दार्शनिक सिद्धांतों से अत्यधिक निकट का संबंध है”

( उदाहरण के लिए, सामाजिक चयन सिद्धांत गणितीय तर्कशास्त्र का अत्यधिक प्रयोग करता है और नैतिक दर्शन को भी उत्पन्न करता है, और असमानता और पृथक्करण के सिद्धांत भी ऐसा करते हैं), बल्कि इसलिए भी मैंने दार्शनिक अध्ययनों को अपने आप में अत्यधिक पारितोषिक प्रदान करने वाला पाया है।

तत्वमीमांसा

जब हम यह प्रश्न पूछें कि वहां क्या है, तो अमर्त्य सेन उत्तर देंगे कि वह जिसे हम अपनी इंद्रियों द्वारा देखते हैं और अपनी बुद्धि द्वारा समझते हैं । अतः हमारे पास ऐसे मनुष्य हैं जिनमें स्वयं को विषयी (यहां विषयी जिसमें अन्य सभी वस्तुओं का अन्य के रूप में अध्ययन करने की क्षमता है ) के रूप में समझने की क्षमता है और अन्य सभी वस्तुओं को अन्य के रूप में।

विषयी स्वयं को एक संबंधित प्राणी, विभिन्न समूहों से संबंधित व्यक्ति के रूप में पाता है। एक ही व्यक्ति भारतीय नागरिक, एक ब्रिटिश या अमरीकी निवासी एक कवि, एक सरकारी कर्मचारी, एक पुरुष या एक नारी, दर्शनशास्त्र का एक विद्यार्थी, आदि हो सकता है। ये सभी संबंध उसके उन चयनों और निर्णयों पर, जो वह लेता है और वर्तमान में वह जिन समस्याओं का सामना कर रहा है।

उनके लिए दिये गये उत्तरों पर और उसकी प्राथमिकताओं पर, कुछ बल डालते हैं। उनके लिए यह जटिलता तत्वमीमांसा की जटिलता है। यह ज्ञानमीमांसा से अत्यधिक जुड़ी हुई है। आइए इसकी व्याख्या करें ।

ज्ञानमीमांसा

एक बार जब हम व्यक्ति को एक समूह के सदस्य के रूप में और समूह की प्रकृति को उपवर्गीकरणों के साथ बहु-आयामी के रूप में समझ लेते हैं, तो हम एक जटिल जाल में प्रवेश कर जाते हैं। यहां पर हितों में विरोध, और संदिग्धता की भूमिका प्रकट होती है और उनके लिए ज्ञानमीमांसा का मुख्य विषय इसी संदिग्धता को दूर करना है।

आइए इसे हम एक उदाहरण द्वारा व्याख्यायित करें। मान लें कि मुझे मलयालम कविता पसंद है। काव्य एक समूह के रूप में विश्व की सभी अतीत और वर्तमान की कविताओं को सम्मिलित करता है । पुनः स्वयं काव्य को प्राचीन ऐतिहासिक, वैदिक, देशभक्ति, प्राकृतिक, दार्शनिक आदि में वर्गीकृत किया जा सकता है।

जब मैं यह कहता हूं कि मुझे मलयालम कविता पसंद है, तो मेरा अर्थ किस कविता से है? और इस संदिग्धता या अनेकार्थता से कैसे उबर सकते हैं? यहां पर वे तर्क और अनुभव को प्रयोग में लाते हैं।

नीतिशास्त्र

अमर्त्य सेन के नीतिशास्त्र में उदारवाद और कल्याण की नींव है। यह उन्हें अपनी पारिवारिक पृष्ठभूमि और बचपन के अनुभव से प्राप्त हुआ। उनका उदारवाद वह है जो स्वतंत्रता, सहिष्णुता और लोकतंत्र को स्वीकार करता है। वे भारतीय विरासत की बौद्धिक बहुलता की अत्यधिक प्रशंसा करते हैं और कहते हैं कि प्रश्न और मतभेद तो भारतीय रक्त में हैं।

वे इसे अपनी पुस्तक द आर्ग्युमेंटेटिव इंडियन में प्राचीन पुस्तकों से संदर्भ देकर सिद्ध करते हैं। उनके अनुसार, “संस्कृत में अन्य किसी प्राचीन भाषा से अधिक वृहत्, कृत्रिम या नास्तिक रचनाओं के भाग हैं।” अल्पसंख्यक विचारों के प्रति सहिष्णुता और आलोचना, हम भगवतगीता जैसे ग्रंथों में और मुख्य रूप से भगवान कृष्ण के मध्य वार्ता में देख सकते हैं।

अपने बाल्यकाल अनुभव को जो उनके नैतिक आदर्शों पर दूसरा अत्यधिक प्रभाव डालने वाला था, की व्याख्या उन्होंने ‘द स्टोरी ऑफ कादिर मियां’ में की है। यह एक मूखर्तापूर्ण हिंसा की कहानी है। कादिर मियां, एक मुस्लिम दैनिक मजदूर, जो हिन्दू प्रबल क्षेत्र में काम करने के लिए आते थे, को सांप्रदायिक ठगों द्वारा पीठ पर चाकू मार दिया गया । वे अमर्त्य सेन के पिता द्वारा अस्पताल ले जाए गये।

रास्ते में कादिर मिया यही कहते जा रहे थे कि उनकी पत्नी ने काम पर जाने के लिए मना किया था, क्योंकि सांप्रदायिक लोग उन्हें चोट पहुंचा सकते थे, परंतु वे अपने बच्चों की रोटी के लिए की जा रही पुकार को सहन नहीं कर सके । अमर्त्य सेन कहते हैं कि आर्थिक परतंत्रता ही उसके लिये मौत की सजा में बदल गयी, जो आगे चलकर अस्पताल में हुई।

वे गांधी के नैतिकता पर आधारित आर्थिक और सामाजिक हित के आदर्शों से प्रभावित थे। रॉयल स्वीडिश अकादमी के अनुसार, जिसने 1988 में सेन को नोबल पुरस्कार दिया, “उन्होंने अर्थशास्त्र में नैतिक आयाम को फिर स्थापित किया ।”

सीमांत व्यक्तियों के प्रति उनकी भावुकता उनकी रचनाओं और पूंजीवाद और साम्यवाद के सिद्धांतों के प्रति उनके व्यवहार में परिलक्षित होती है। उनके अनुसार, “ऑमलेट बनाने के लिए तुम्हें कुछ अंडे फोड़ने पडेंगे” जैसे नारे घातक रूप से पथभ्रष्टक हैं और मनुष्य के स्वभाव को समझने में गलत हैं। अतः वे भागीदारी वाले अर्थशास्त्र का पक्ष लेते हैं।

उनके अनुसार बिना मानव कल्याण के अर्थशास्त्र फलरहित है। अतः अर्थशास्त्र को आधाभूत परिस्थितियों को अवश्य देखना चाहिए। गरीबी को अवश्य ही भोजन की कमी के रूप में नहीं, बल्कि निरक्षरता, खराब स्वास्थ केन्द्रों, दोषपूर्ण भूमि सुधारों, लिंग भेदों, औरतों को वंचित करने और बच्चों की सकारात्मक उपेक्षा के शब्दों में परिभाषित करना चाहिए।

उनका कहना है, “हमारे सामाजिक–आर्थिक जीवन के अप्रिय क्षेत्रों, जैसे असमानता, वंचित करना, लिंग पक्षपात, कुपोषण, बीमारी और सदा विद्यमान भुखमरी, के प्रति अर्थशास्त्री का कर्त्तव्य ऐसे मार्गों को बताना है जिससे इन्हें दूर किया जा सके। उन्हें कानूनी तंत्र और मजदूरी की संरचना का परीक्षण करना चाहिए। हमारे नीति निर्माताओं को पूर्ण उपभोग से अभीभूत न होकर, लोगों की आवश्यकताओं के लिए मौलिक आवश्यकताओं के प्रबंध से अभीभूत होना चाहिए। (देखिये-डॉ. एन. महालिघम, “

अमर्त्य सेनस एकोनामिक्स एण्ड गाधियन आइडल’ इन महात्मा गांधी, द सन ऑफ द मिलेनियम, (एडि.) शेषराव चावहन)। उनके अपने न्याय के विचार ने उन्हें समाज में कमी के मूल कारणों को खोजने पर मजबूर किया। इस संदर्भ में वे कुछ पारंपरिक सांस्कृतिक मूल्यों यथा आत्म त्याग; जो कि विनम्रता पूर्वक प्रशंसित हुआ, आदर्श बनाया गया और पूजा गया, जिसने समूह को वंचित किया, भले ही वह घर की लडकियां हों जिसने वंचित करने को एक सद्गुण माना, की आलोचना करते हैं।

इसी पृष्ठभूमि से वे नारियों के वंचितिकरण, गरीबी, निरक्षरता, बच्चों के कल्याण में, उनको जन्म देने में और उनके पालन-पोषण में असफलता, मालिक स्वास्थ्य में कमी आदि के विरूद्ध लिखते हैं ।

समाज दर्शन

1960 के अन्तिम और 1970 के प्रारम्भिक दशक में अमर्त्य सेन के लेखों ने सामाजिक चयन के दर्शन के विकास में सहायता की, जो सर्वप्रथम अमरीकी अर्थशास्त्री केनेथ एरो की रचना में मुख्य रूप से आया, जिन्होंने विख्यात रूप से यह सिद्ध किया कि सभी वोट देने के नियमों का, चाहे वह बहुमत का नियम हो या दो तिहाई बहुमत का या वर्तमान स्थिति का, कुछ मौलिक लोकतांत्रिक मूल्य के साथ अनिवार्य रूप से विरोध होना चाहिए।

अमर्त्य सेन का योगदान यह दिखाने में था कि किन परिस्थितियों में एरो की असंभावना का प्रमेय वास्तव में आर्थिक विचार एवं दर्शन के इतिहास में उनकी रूचियों द्वारा सूचित सामाजिक चयन के सिद्धांत को पार और साथ-ही-साथ विस्तृत और मूल्यवान बनाता है। 1981 में सेन ने एक पुस्तक ‘पावर्टी एड फैमाइंस : ऐन एससे ऑन एनटालटलमेंट एंड डिप्राइवेशन (1981)” प्रकाशित की

जिसमें उन्होंने यह स्थापित किया कि अकाल मात्र भोजन की कमी से नहीं, बल्कि भोजन के वितरण की प्रक्रिया में की गई असमानता से भी उत्पन्न होता है। सेन की अकाल में रूचि उनके वैयक्तिक अनुभव से उत्पन्न हुई। नौ साल की उम्र में उन्होंने 1943 का बंगाल का अकाल देखा, जिसमें तीस लाख लोग मारे गये थे।

सेन ने बाद में यह निष्कर्ष निकाला कि जीवन की यह चकित कर देनी वाली हानि अनावश्यक थी। उन्होंने आंकड़े प्रस्तुत किये कि उस समय बंगाल में पर्याप्त खाद्य आपूर्ति थी, परंतु लोगों के कुछ विशेष समूहों, जिनमें गांव के भूमिहीन मजदूर और नगरीय सेवा प्रदान करने वाले, जैसे बाल काटने वाले शामिल थे, के पास भोजन प्राप्त करने के लिए वित्तीय साधन नहीं थे

क्योंकि उनके मूल्य अत्यधिक तेज गति से, कुछ कारणों से बढ़ गये थे, जिनमें ब्रिटिश सैनिक उपार्जन, अत्यधिक खरीद, गुप्त संचय और मूल्य मुनाफाखोरी, जो सभी क्षेत्र में होने वाले युद्ध से प्रभावित थे, सम्मिलित हैं। पावर्टी एंड फैमाइंस में सेन ने यह प्रकट किया कि अकाल की कई घटनाओं में, खाद्य आपूर्तियां पर्याप्त रूप से नहीं घटी थीं।

उदाहरण के लिए, बंगाल में खाद्य उत्पादन, पूर्व सालों में नीचा था, जबकि अकाल वाले वर्षों से ऊंचा था । अतः सेन कई सामाजिक और आर्थिक कारणों जैसे कि गिरती हुई मजदूरी, बेरोजगारी, बढ़ते खाद्य मूल्य और खराब खाद्य वितरण व्यवस्था की ओर इंगित करते हैं। उनकी क्षमताओं के प्रस्ताव सकारात्मक स्वतंत्रता, एक व्यक्ति की कुछ बनने या कुछ करने की वास्तविक क्षमता, पर केन्द्रित हैं, बजाय कि नकारात्मक स्वतंत्रता के प्रस्तावों पर, जो कि अर्थशास्त्र में सामान्य हैं और सरल रूप में अहस्तक्षेप पर केन्द्रित हैं।

बंगाल के अकाल में गांव के मजदूरों की खाद्य सामग्री खरीदने की नकारात्मक क्षमता नहीं प्रभावित हुई थी। तब भी, भूखे मरे क्योंकि वे सकारात्मक रूप से कुछ भी करने के लिए स्वतंत्र नहीं थे, उनके पास पोषण की क्रियात्मकता नहीं था, न ही रोगग्रस्तता से बचने की क्षमता थी ।

सेन का विकासवादी अर्थशास्त्र को दर्शन और सामाजिक संकेतकों के सम्बंध में दिया गया क्रांतिकारी योगदान उनके लेख इक्वैलिटी ऑफ वॉट में विकसित ‘क्षमता’ की अवधारणा का है। वे तर्क देते हैं कि शासन का मूल्यांकन, उनके नागरिकों की वास्तविक क्षमताओं के अनुपात में करनी चाहिए। ऐसा इसलिए है क्योंकि ऊपर से नीचे का विकास सदैव मानव अधिकारों को महत्व नहीं देता

जब कि मानव अधिकार पद की परिभाषाएं संदेहास्पद रहे (क्या ‘अधिकार’ वह है जो अवश्य ही प्रदान किया जाना चाहिए या वह है जो हमसे छीना नहीं जा सकता?) उदाहरण के लिए, संयुक्त राज्य अमेरीका में नागरिकों को वोट करने का काल्पनिक ‘अधिकार’ है।

सेन के अनुसार, यह अवधारणा उचित रूप से रिक्त है । नागरिकों को वोट करने की क्षमता से युक्त करने के लिए उनके पास पहले ‘कार्यशीलता’ होने चाहिए। “कार्यशीलता” का विस्तार बहुत व्यापक हो सकता है, जैसे कि शिक्षा की उपलब्धता, और विशिष्ट रूप से मतदान – कक्ष तक पहुंचने के लिए साधन आदि। जब ऐसी बाधाएं हटा दी जाएंगी तभी वास्तविक रूप से नागरिक अपने वैयक्तिक चुनाव के अनुसार कार्य करने वाला कहा जाएगा।

सेन अधिकांश अर्थशास्त्रियों द्वारा हाशिये पर रखे गये विषयों पर विचार-विमर्श करने के अपने आग्रह के कारण उत्तरकालीन बीसवीं शताब्दी के अर्थशास्त्रियों में अगुआ के रूप में देखे गये। उन्होंने उस आर्थिक योजना, जिसमें स्वार्थ को मानव क्रिया के मुख्य प्रेरक के रूप में माना जाता है, के विरूद्ध प्रस्तुत कुछ बड़ी चुनौतियों में से एक चुनौती को प्रस्तुत किया। उनके कार्य ने अर्थशास्त्रियों के महत्वपूर्ण भाग को और विकासशील कार्यकर्ताओं को, यहां तक कि संयुक्त राष्ट्र की नीतियों को प्राथमिकताओं को पुनः व्यवस्थित करने में सहायता प्रदान की।

कल्याणकारी अर्थशास्त्र आर्थिक नीतियों का मूल्यांकन उनके समुदाय के कल्याण पर होने वाले प्रभाव के आधार पर करता है। सेन, जिन्होंने अपनी जीवनवृत्ति को इन विषयों पर दान कर दिया, “अपने उद्ययम की अंतरात्मा” कहलाए।

उनके प्रभावकारी कार्य कलेक्टिव वॉयस ऐण्ड सोशल वेलफेयर, 1970, जिसमें वैयक्तिक अधिकारों (उदारवादी विरोधाभासों को सूत्रबद्ध करने सहित), न्याय और समानता, बहुमत शासन, और वैयक्तिक परिस्थितियों के विषय में सूचना की उपलब्धता से संबंधित समस्याओं को इंगित किया गया है, ने शोधकर्ताओं को अपना ध्यान मौलिक हित के विचारों की ओर ले जाने को प्रात्साहित किया है।

सेन ने गरीबी को मापने की विधियां बताईं जिसने गरीबों की आर्थिक परिस्थितियों को अच्छा करने के लिए महत्वपूर्ण सूचनाएं प्रदान कीं । उदाहरण के लिए, असमानता पर उनके सैद्धांतिक कार्य ने यह व्याख्या प्रस्तुत की कि क्यों भारत और चीन में पुरूषों की तुलना में औरतें कम हैं। इस तथ्य के उपरान्त कि पश्चिम में और गरीब किन्तु चिकित्सकीय रूप से पक्षपात रहित देशों में औरतों की सभी उम्र में निम्न मृत्युदर है

वे अधिक दिनों तक जीवित रहती हैं और जनसंख्या में अधिक हैं। सेन ने यह बताया कि विषम अनुपात उन देशों में प्रदत्त अच्छी स्वास्थ्य सुविधाओं और लड़कों को प्रदत्त बाल्यकाल अवसरों और साथ ही साथ लिंग विशिष्ट गर्भपात के कारण फलित होता है ।

सरकारें और खाद्य आपूर्ति को प्रबंधित करने वाली अंतर्राष्ट्रीय संस्थाएं सेन के कार्य से अत्यधिक प्रभावित हुईं। उनके विचारों ने नीति निर्माताओं को केवल तात्कालिक कष्ट के उपयमन पर ही नहीं बल्कि गरीब की नष्ट आमदनी को स्थानांतरित करने के तरीकों को खाजने पर, जैसे, उदाहरण के लिए, सार्वजनिक कार्ययोजनाओं द्वारा और खाद्य पदार्थ के मूल्यों को स्थिर बनाये रखने पर भी ध्यान देने को उत्साहित किया।

राजनैतिक स्वतंत्रता के प्रबल पक्षधर सेन का मानना था कि अकाल क्रियाकारी लोकतंत्रों में नहीं आते क्योंकि उनके नेताओं को नागरिकों की मांग के प्रति अधिक उत्तरदायी होना पड़ता है, उन्होंने तर्क दिया कि आर्थिक विकास को प्राप्त करने के लिए, सामाजिक सुधारों जैसे शिक्षा और सार्वजनिक स्वास्थ्य में सुधारों को आर्थिक सुधार के पहले आना चाहिए।

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