पंडित जवाहरलाल नेहरू का दर्शन | जीवन परिचय|
पंडित जवाहरलाल नेहरू का जन्म 14 नवंबर, 1889 को इलाहाबाद में हुआ था और उनकी शिक्षा इंग्लैंड में हैरो और कैम्ब्रिज में हुई।
1912 में नेहरू ब्रिटिश उपनिवेशिक शासन से आजादी के लिए होने वाले भारतीय संघर्ष में एक केन्द्रीय भूमिका निभाने के लिए वापस लौटे, और फिर, सत्रह वर्षों तक स्वतंत्र भारत के प्रधानमंत्री होने के रूप में, देश के भविष्य को एक आधुनिक, धर्मनिरपेक्ष और लोकतांत्रिक राज्य का रूप देने के लिए आगे बढ़े।
उनकी 27 मई, 1964 को कार्यालय में मृत्यु हो गयी । द्रष्टा और आदर्शवादी, विद्वान और अंतर्राष्ट्रीय स्तर के राजनेता नेहरू एक अच्छे लेखक भी थे। उनकी तीन सबसे विख्यात पुस्तकें – एन ऑटोबायग्राफी, ग्लिम्पसेज ऑफ वर्ल्ड हिस्ट्री और द डिस्कवरी ऑफ इंडिया पहले ही उच्च कोटि के साहित्य का स्थान पा चुकी हैं।
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पंडित जवाहरलाल नेहरू का दर्शन
पंडित जवाहरलाल नेहरू अत्यधिक राष्ट्र और अंतर्राष्ट्रीय महत्ता के विचारक थे। अपनी रचनाओं, व्याख्यानों, संसद के कथनों, सार्वजनिक स्थानों, अंतर्राष्ट्रीय सम्मेलनों और अन्य स्थानों के द्वारा, उन्होंने एक विकासशील समाज को पुनः व्यवस्थित करने के लिए प्राथमिक और उर्वर विचारों को प्रस्तुत किया।
नेहरू के अनुसार, दर्शनशास्त्र ने धर्म की अनेक कमियों को दूर किया और विचार और खोज को प्रोत्साहित किया। परंतु यह सामान्यतः अपने उच्च शिखर पर रहते हुए जीवन के अंतिम लक्ष्यों पर ध्यान केन्द्रित करते रहने से दार्शनिक कल्पनाओं को जीवन और मनुष्य की व्यावहारकि समस्याओं से संबंधित करने में असफल रहा है। दर्शनशास्त्र तर्कशास्त्र और बुद्धि से मार्गदर्शित होता है, जो कि अत्यधिक मानसिक उत्पाद हैं और जीवन के तथ्यों से संबंधित नहीं होता है।
विज्ञान
विज्ञान ने अपना अनवरत विकास बौद्धिक प्रदर्शन और प्रमाण से किया। इसने निश्चित रूप से आनुभविक रूप से प्रामाणिक मानव ज्ञान को बढ़ाया है। विज्ञान स्थायी है और इसने धर्म से संबंधित अंधविश्वासों को अत्यधिक मात्रा में हटाया है।
वैज्ञानिक “वर्तमान के चमत्कारी–कार्यकर्ता” हैं। तथापि विज्ञान, संपूर्ण सत्य को प्रकट नहीं कर सकता और उसकी अवलोकन विधि सभी प्रकार के अनुभवों पर सदैव लागू नहीं हो सकती। परंतु विज्ञान की सीमाओं के लिये व्यक्ति को उसमें अपने विश्वास को छोड़ना नहीं चाहिए क्योंकि सत्य के एक भाग को जानना और उसे अपने जीवन पर लागू करना, कुछ भी न जानने से अच्छा है |
धर्म
नेहरू धर्म के प्रति अपने कथनों में हमेशा तटस्थ, असहानुभूतिपूर्ण और प्रायः विरोधी रहते थे। कुछ उन्हें नास्तिक कहते थे, जबकि कुछ अज्ञेयवादी कहते थे। नेहरू की धर्म के प्रति एक आलोचनात्मक टिप्पणी इस प्रकार है: “धर्मों ने मानवता के विकास में अत्यधिक सहायता की है। उन्होंने मूल्यों और मानदंडों को प्रदान किया है और मानव जीवन के मार्गदर्शन के लिए सिद्धांतों का वर्णन किया है।
परंतु इन अच्छाइयों के साथ उन्होंने सत्य को निर्धारित स्वरूपों व मतांधताओं में बंद करने का प्रयास भी किया है, और ऐसे उत्सवों और कार्यकलापों को प्रोत्साहित किया है, जिन्होंने शीघ्र ही अपने वास्तविक अर्थ को खो दिया और मात्र दैनिक क्रिया कलाप बनकर रह गये ।
धर्म ने मनुष्य को चारों ओर व्याप्त अज्ञात शक्ति का भय और रहस्यमयता दिखाकर न केवल उस अज्ञात को समझने के प्रति हतोत्साहित किया है, बल्कि सभी वस्तुओं के प्रति स्थापित चर्चों के प्रति, वर्तमान सामाजिक व्यवस्था के प्रति, और सभी वस्तुओं के प्रति समर्पण के दर्शन की शिक्षा दी है सभी वस्तुओं को नियंत्रित करने वाली एक अतिप्राकृतिक शक्ति के प्रति विश्वास जगाकर सामाजिक स्तर पर एक उत्तरदायित्वहीनता को उत्पन्न किया है।
परिणामस्वरूप भावनाओं और संवेगों ने तार्किक चिंतन व खोज का स्थान ले लिया है। यद्यपि धर्म ने निश्चित रूप से अनेक मनुष्यों को संतोष प्रदान किया है और अपने मूल्यों द्वारा समाज को स्थिरता प्रदान की है, परंतु इसने मानव समाज में अंतर्निहित परिवर्तन और विकास की प्रवृत्ति को अवरोधित भी किया है।” ।
साम्प्रदायिकता और धर्मनिरपेक्षवाद
साम्प्रदायिकता भारत की एकता और समन्वयता की शत्रु है। यह समूहवाद का दूसरा नाम है; जो मानव जाति को कुछ प्राथमिक अवधारणाओं और विश्वासों के आधार पर विभाजित करता है। साम्प्रदायिकता के रूप में धर्म और राजनीति की संधि, सर्वाधिक घातक संधि है। इस समस्या का एकमात्र समाधान धर्मनिरपेक्षवाद है।
वास्तव में, धर्मनिरपेक्षवाद धार्मिक विचारों को साधारण जनता और सरकार के क्रियाकलापों में मिश्रित होने से बचाकर धर्म की रक्षा कर सकता है। क्योंकि सहिष्णुता और पारंपरिक • सम्मान मात्र देश की सरकार की सुरक्षा के लिए ही नहीं, बल्कि इन धर्मों के विकास के लिए भी अत्यधिक आवश्यक हैं। कोई भी धर्म तनाव और झगड़े के बीच में विकसित नहीं हो सकता।
इतिहास
कई विद्वानों ने पंडित जवाहरलाल नेहरू की इतिहास की अवधारणा को “ऐतिहासिक समाजशास्त्र के रूप में वर्गीकृत किया है। यद्यपि नेहरू ने इतिहास के विकास या परिवर्तन का कोई सुसंगत सिद्धांत विकसित नहीं किया है तथापि उन्होंने विषयपरक बलों, अर्थशास्त्रीय तथ्यों और समाज के परिस्थिति जन्य संदर्भ के महत्व को अपने ऐतिहासिक समाजशास्त्र के सिद्धांत में भीलभांति समझा है।
ऐतिहासिक समाजशास्त्र, कैम्ब्रिज में उनकी विज्ञान की प्रारंभिक शिक्षा में आधारभूत अपनी व्यावहारिक अवस्थिति के कारण अद्वितीय है।
लोकतांत्रिक समाजवाद
नेहरू ने सभी के लिए समान अवसर उपलध कराने वाले वर्ग रहित समाज की ओर ले जाने वाले समाजवाद का पक्ष लिया । यद्यपि वे पश्चिम में प्रचलित समाजवाद के प्रकार के असमीक्षावादी प्रशंसक नहीं थे, और उसके सिद्धांतों को भारतीय परिस्थितियों के अनुसार बनाना चाहते थे।
वे समाजवाद के उस प्रकार के विरूद्ध थे जिसने व्यक्तियों के जीवन को उस हद तक नियंत्रित कर दिया कि उनकी आधिकारिक स्वायत्तता और स्वतंत्रता ही समाप्त हो गयी। उनका लोकतांत्रिक समाजवाद लोकतंत्र के सिद्धांतों के अनुरूप साधनों को अपनाने पर लक्षित था।
मानववाद
कॉर्लिस लेमंट ने मानववाद को इस प्राकृतिक विश्व में संपूर्ण मानवता के सर्वाधिक शुभ को लाने वाले और कर्त, विज्ञान और लोकतंत्र के सिद्धांतों की स्थापना करने वाले आनंदमय कर्म के दर्शन के रूप में परिभाषित किया है।
मानववाद के दो प्रकारों उदारवाद और मार्क्सवाद- में से नेहरू उदारवादी मानववाद के अधिक निकट थे। मार्क्सवादी विचारों, यथा विरोधी बलों की ध्रुवता से प्रभावित होने के बावजूद, नेहरू पर गांधी का प्रभाव इतना गहन और व्यापक था कि वे मार्क्सवाद के विवाद विघटन के विचार में निहित स्पष्ट हिंसा को नहीं अपना सके।
उनके लिए विशेष रूप से गांधी का साध्य और साधन का नीतिशास्त्र अधिक महत्वपूर्ण था, जिसमें उचित साध्य की प्राप्ति एकमात्र मार्ग उचित साधन के होने पर बल दिया गया था।
भारत का संविधान
नेहरू का यह दृढ़ मत था कि भारत के संविधान में कुछ भी स्थायी नहीं है। क्योंकि उनका मानना था कि नयी पीढ़ी संविधान के मूल स्वरूप को परिवर्तित कर सकती है या नया संविधान ही लिख सकती है।
भारत के संविधान समिति में एक बहस के दौरान, नेहरू ने कहा : “जब एक देश की शक्ति अपने बंधनों को तोड़ देती है, तो वह विशिष्ट रूप में कार्य करती है। ऐसा हो सकता है कि इस सदन द्वारा बनाया गया संविधान स्वतंत्र भारत को संतुष्ट न करे, यह सदन अगली पीढ़ी को या आगे आने वाले लोगों को इस कार्य में नहीं बांध सकता है।”
विदेश नीति
नेहरू की विदेश नीति भारत के दीर्घ कालिक हितों के विचारों पर आधारित थी। वे शांति के पक्षधर थे और यह विश्वास करते थे कि दक्षिण-पूर्व एशिया की सुरक्षा गुटनिरपेक्ष नीति पर आधारित है। भारत की विदेश नीति के सारे मुख्य उद्देश्य 1 सितंबर, 1946 को प्रसारित नेहरू के व्याख्यान में निहित हैं।
इसके मुख्य उद्देश्यों को इस प्रकार निर्देशित कर सकते हैं: 1. अन्य देशों से संबंध विकसित करना और विश्व शांति व स्वतंत्रता को बढ़ाने में उनका सहयोग करना ।
2. जहां तक संभव हो वहां तक एक-दूसरे के विरूद्ध संधि करने वाले समूहों को शक्ति की राजनीति से दूर रहना, जिसने पहले दो विश्व युद्धों को जन्म दिया और आगे भी बड़े स्तर पर विपत्ति की ओर ले जा सकता है।
3. उपनिवेषिक लोगों की मुक्ति के लिए और स्व सरकार की स्थापना द्वारा निर्भर लोगों के हित व विकास के लिए कार्य करना ।
4. नक्सलवाद के नाजी सिद्धांत को पूर्ण रूप से अस्वीकार करना ।
5. स्वतंत्र लोगों के सहयोग पर आधारित एक विश्व के निर्माण के लिए कार्य करना, जिसमें विभिन्न समूह एक-दूसरे का विनाश नहीं करेंगे।
6. ब्रिटिश कॉमन वेल्थ के अन्य देशों के साथ मित्रतापूर्ण और सहयोगी संबंध रखना ।
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